प्राइवेट प्लेयर्स की धार्मिक एंट्री, गंगा पर विलास का खेल, काशी के आध्यात्मिक आकाश पर काले बादलों की छाया

अन्तर्द्वन्द
धर्मेश कुमार रानू

एक दौर था जब नुमाइश की चीजों से आस्था को दूर रखा जाता था, और आस्था के विषय से नुमाइश को दूर रखा जाता था…..एक समय था जब धर्म का विषय काफी व्यक्तिगत होता था, ये वो समय नहीं था जब “एक समय की बात है” जैसी पंक्तियों से शुरू होने वाले कुछ मनगढ़ंत और ब्राह्मणवादी शास्त्रों की रचना हुई, ये वो भी समय भी नहीं था जब मनुस्मृति जैसे पिशाची ग्रंथ लिखे गए थे, ये समय वो समय था, जिसकी शुरुआत औपचारिक रूप से उस दिन ही हो गई थी, जब बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने मनुस्मृति जैसे कु-शास्त्र रूपी मधु कैटभ का दहन किया था।

आपकी जानकारी के लिए बता दें कि मधु और कैटभ नाम के दो खूंखार राक्षस थे जिन्होंने नारायण तक को युद्ध में पसीने छुड़ा दिए थे। ठीक वैसे ही पसीने इंसानियत को, इंसाफ को, भारतीयता को, बराबरी की बात को, हक की बात को मनुस्मृति ने छुड़ा दिए थे। पर अंततः संविधान के गठन ने मनुस्मृति के ताबूत में आखिरी कील ठोंकने का काम किया। और देश कई सालों तक धर्म निरपेक्ष और जाति निरपेक्षता की राह पर चल पड़ा था। पर ना जाने किसी ने अचानक से आकर उस ताबूत से मनुस्मृति के जिन्न को रिहा कर दिया।
यह जिन्न आजकल देश के दो बड़े नेताओं की शक्ल अख्तियार कर को घूम रहा है। जिनमें से एक यानि कैटभ है जोकि पूर्व में “तड़ीपार” आदि नामों से जाना जाता था वो आजकल धर्म का धंधा कर रहा है, तो दूसरी ओर “मधु” है आजकल धंधे- धंधे में धर्म ढूंढ रहा है। जैसे कोई ट्रेन मिल जाए जिसमें लाखों का किराया चार्ज किया जाए, उसका नाम “रामायण” रखा जाए और इस प्रकार प्राइवेट प्लेयर्स की धार्मिक एंट्री रेलवे में मुमकिन हो सके वो भी बिना किसी विरोध के, बिना किसी सवाल के….सवाल उठाए भी कौन? राम काज जो हो रहा है, भले ही क्यों ना भक्तों को इसकी लाखों कीमत चुकानी पड़े। बाकी देश में ट्रेनों के बढ़ते किराए और घटते स्तर की चिंता है भी किसे, आम आदमी ही तो ट्रेनों से चलते हैं, और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि इन आम आदमियों में से बहुतेरे ये कहते मिल जाएं “शेर पाला है तो खर्च तो करना ही होगा”……शेर से उनका मतलब होता है “हिंदू शेर” ज़रा और गहराई से खोजेंगे तो ये तथाकथित “हिंदू शेर” कब “मनुवादी शेर” जैसा दिखने लगेगा पता भी ना चलेगा।

आज का मनुवाद थोड़ा प्रैक्टिकल हुआ है, उसके पास वंचितों को कुचल देने की पहली जैसी ताकत नहीं है क्योंकि संविधान नाम की ज़ंजीर उनके हाथ रोकती है। पर ये मनुवादी तो हार मानने से रहा, अपनी मियाद पूरी करके ही मानेगा, इसको धर्म से ना तो कल कोई मतलब था ना आज है, इसे कल भी सत्ता चाहिए थी आज भी सत्ता चाहिए। कल तक तो ये धोती पहनता था फिर अचानक अपने ब्रितानी आकाओं का अनुसरण करते हुए खाकी चढ्ढे पहनने लगा। पर मकसद वही का वही, “चाहे चाटो या चटाओ पर सत्ता में आओ, गरीबों- वंचितों का हक मार के खाओ।”

हां! तो हम बात कर रहे थे मधु की, अरे! “शहद” वाले मधु की नहीं बल्कि शहद जैसी मीठी मीठी, चिकनी चिपुड़ी बातें करने वाले “मधु” नामके कलयुगी जिन्न की, जोकि धंधे-धंधे में धर्म ढूंढू ही लेता है और फिर धर्म-धर्म में धंधा करता है। और अब तो इसने पतित पावनी गंगा मां को भी ना छोड़ा।

मित्रों जैसा की आप जानते ही हैं आध्यात्मिकता और विलास दो अलग अलग धुरियां हैं। जहां आध्यात्म है वहां विलास की कोई जगह नहीं और जहां विलास है वहां आध्यात्म होना मुमकिन नहीं। पर आध्यात्मिक नगरी काशी को अब भोग विलास से कितनी ही दूर रखा जा सकता है, जब इन “मधु और कैटभ” नामक जिन्न के साए काशी के आध्यात्मिक आकाश पर काले बादलों की तरह छाए बैठे हों।

पहले वर्ल्ड टूरिज्म का बहाना देकर काशी कॉरिडोर की आड़ में कई सौ साल पुराने मंदिर तुड़वाए गए। अब हो सकता है कुछ दिनों में उन स्थानों पर आपको पांच सितारा होटल दिखने लगें। जिनमें पश्चिम से आए गोरे लोग, भोग विलास करते नजर आएं और आम जन ठन-ठन गोपाल बनकर बाहर से ताक झांक का आनंद लेते नज़र आए। क्योंकि ये तांक-झांक करने वाले तो पहले से मान ही चुके हैं कि “शेर पाला है”। पर ये सिलसिला यही नहीं थमता ये तो बढ़ता जा रहा है और आगे भी बदस्तूर बढ़ता ही रहेगा।

विलास के इसी क्रम में “गंगा विलास” भी आ चुका है। जो भारत के आम जन की पहुंच से बहुत दूर है। ये वो क्रूज़ रूपी इंद्र का मयखाना है जिसका एक दिन का किराया ही इतना है जितनी औसत तौर पर भारतीय नागरिकों की महीने की कमाई ही नहीं। भारत की औसत मासिक कमाई अधिकतम 38’800₹ के आसपास है जबकि इस क्रूज़ का एक दिन का किराया 50’000₹ है। और तो और इस क्रूज़ का पूरा सफर डेढ़ महीने में पूरा होता है तो अगर आपको इसकी पूरी यात्रा का लुत्फ उठाना है तो, सोंचिये भी मत। क्योंकि इस क्रूज़ के मालिक के अनुसार यह क्रूज़ अगले पांच सालों के लिए 60 फीसदी बुक है और ये यात्री भारतीय नहीं हैं, ये वो फैशनेबल गोरे हैं जो काशी के हवाई अड्डे पर लैंड करेंगे, कॉरिडोर किनारे बने पांच सितारा में शबाब, कबाब, और शराब का लुत्फ उठाएंगे, आपके नंगे पुंगे साधुओं की तस्वीरें लेंगे, और क्रूज़ पर चढ़ जायेंगे…..इन्हें भी “मधु कैटभ” की ही तरह आपके धर्म से कोई सरोकार नहीं, इनके देशों में औसत मासिक आय आपकी उम्मीद से बहुत ज्यादा होती है, लेकिन आप चिंता ना कीजिए आपने तो “शेर पाला है” इसीलिए आपको इससे क्या? पर आपको ये जान लेना जरूरी है कि ये शेर लगातार जगहंसाई करवाता है।

अचानक से जब ये खबर आई की छपरा के पास ये क्रूज़ किनारे पर फंस गया। और विदेशी पर्यटकों को एसडीआरएफ की टीम ने बड़ी मशक्कत से निकाला, और पीपा पुल खोलकर इस क्रूज़ को रास्ता दिया गया। पर तब भी मुझे इस बात पर कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि मैंने “शेर नहीं पाला है”, मुझे पता है कि ये शेर तो पनौती है। खैर गंगा में क्रूज़ फंसने की घटना से साफ़ जाहिर है कि इसे चलाने से पहले इसके रूट का निरीक्षण तो हुआ ही ना होगा। और अगर हुआ भी हो तो कैसे हुआ होगा ये जानने के लिए फंसे हुए क्रूज़ का मुंह देख लीजिएगा…..तस्वीरों में तो बिचारा औंधे मुंह खड़ा नजर आ रहा था। पर इससे भी खास बात ये कि इस घटना पर वे स्विट्जरलैंड और अन्य देशों से आए सैलानी क्या प्रतिक्रिया देंगे? क्या इसके बाद वे अपने देशों में जाकर भारत में चल रहे इस क्रूज़ में सैर करने की सलाह दे पाएंगे? इस पर सोंचियेगा।

पर मैं तो प्रशासन से एक गुजारिश करना चाहता हूं, कि कृपया गंगा के रूट का निरीक्षण ज़रा कायदे से करें। ताकि ऐसी जग हंसाई फिर से ना हो पाए और दूसरी गुजारिश ये है कि जब आप गंगा का निरीक्षण कर रहे हों तब एक और निरीक्षण कीजिए “गंगा की साफ सफाई का निरीक्षण”, नमामि गंगे मिशन जैसे जुमलों का निरीक्षण। क्योंकि हाल-फिलहाल तो गंगा की दुर्दशा से जुड़ी कोई खबर तो नहीं आई पर अगर पिछले छह महीने पहले आई एक रिपोर्ट की मानें तो -गंगा नदी में 61 प्रतिशत नालों का गंदा पानी सीधा बह रहा है। तमाम बंदिशों के बाद भी सिर्फ केवल 39 प्रतिशत नाले ही टैप हैं। उत्तर प्रदेश में गंगा नदी में छोटे-बड़े कुल 301 नाले मिलते हैं। इनमें से 86 नाले तो बिजनौर से लेकर कानपुर के बीच मिलते हैं, जबकि 215 नाले कानपुर से आगे बलिया तक में मिलते हैं। इनमें से केवल 117 नाले ही ऐसे हैं जो टैप हैं। 184 नालों में आज भी बगैर ट्रीटमेंट के ही सीवेज व गंदगी गंगा नदी में बहाई जा रही है।

तो कुछ इस प्रकार गंगा को मैला करके उसपर “विलास” का खेला चल रहा है। इसे रोकिए वरना “मधु-कैटभ” तो अपनी मियाद पूरी करके कभी ना कभी रुखसत हो जायेंगे, पर आपके पास ना धर्म बचेगा, ना धान, ना मजदूर और किसान। भूखों मरने की नौबत आए तो भजन कर लीजिएगा- पर याद रखिएगा

“भूखे भजन ना होए गोपाला
रंगा- बिल्ला झांझ बजावे,
और नाचे रामदेव लाला,
और झमाझम ताल बजावे,
अंबानी -अदानी, बेताला,
भक्त बिचारे भजन कै रहे,
“भूखे भजन ना होए गोपाला।”

-up18news