खांचों में बंटे मीडियार्मियों के लिए भी आत्‍मचिंतन का समय है अर्नब गोस्‍वामी की गिरफ्तारी

अन्तर्द्वन्द

रिपब्‍लिक टीवी चैनल के एडिटर इन चीफ अर्नब गोस्‍वामी की गिरफ्तारी सत्ता की ताबेदारी का निकृष्‍टतम उदाहरण है। हालांकि इसमें नया कुछ भी नहीं है, फिर भी तरीका बहुत ओछा है।
बेशक अर्नब की एंकरिंग को नापसंद किए जाने के बहुत से कारण हो सकते हैं और उनकी कार्यशैली पर भी सवालिया निशान लगाए जाते हैं परंतु महाराष्‍ट्र की उद्धव सरकार ने उससे निपटने का जो हथकंडा अपनाया, वो निश्‍चित रूप से बहुत घटिया रहा।

ऐसा लगता है कि पहली बार सत्ता पर काबिज हुई उद्धव ठाकरे के नेतृत्‍व वाली महाराष्‍ट्र सरकार समूचे मीडिया जगत को अर्नब की गिरफ्तारी के माध्‍यम से ये संदेश देना चाहती है कि उससे टकराने की हिमाकत का अंजाम इसी तरह भुगतना होगा।

माना कि पुलिस का दुरुपयोग राज्‍य सरकारें हमेशा से करती रही हैं और पुलिस को भी उनके लिए इस्‍तेमाल होने से कभी गुरेज़ नहीं रहा परंतु महाराष्‍ट्र पुलिस का प्रदर्शन लगातार सर्वाधिक शर्मनाक रूप में सामने आ रहा है। अर्नब के खिलाफ की गई कार्यवाही उस कड़ी का एक हिस्‍सा है।
अर्नब के खिलाफ 2018 में दर्ज केस के तहत अगर कार्यवाही करनी भी थी तो उसकी ये टाइमिंग इतनी खराब रही कि उसने शिवसेना और ठाकरे परिवार सहित उस समूची महाराष्‍ट्र सरकार की नीयत पर तमाम प्रश्‍नचिन्ह लगा दिए जिसकी भागीदार कांग्रेस तथा राष्‍ट्रवादी कांग्रेस जैसी पार्टियां भी हैं।

जहां तक सवाल पुलिस का है तो उसे अपनी उंगुलियों पर नचाने की हसरत का ही नतीजा है कि किसी भी सरकार ने ‘पुलिस के रिफॉर्म’ को लेकर गंभीरता पूर्वक विचार करना भी जरूरी नहीं समझा और उसके परिणाम स्‍वरूप सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देश धूल फांक रहे हैं।

रही बात मीडिया के निष्‍पक्ष होने की तो वो पूरी तरह निष्‍पक्ष कभी नहीं रहा। हर दौर में उसके ऊपर किसी न किसी पार्टी और सरकार की ओर झुकाव के आरोप लगते रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कभी जो बात दबी जुबान से कही जाती थी, आज वही बात खुलकर कही व सुनी जा रही है।

अर्नब गोस्‍वामी अगर किसी के पक्ष में खुलकर बैटिंग करते नजर आते हैं तो ऐसे मीडिया हाउस, एंकर और पत्रकारों की भी कमी नहीं जो उसी पक्ष का अंधा विरोध करते हैं। ऐसे लोग पत्रकारिता की प्रत्‍येक विधा में मौजूद हैं परंतु किसी के भी प्रति सत्ता का ऐसा दुरुपयोग उचित नहीं।
अभिव्‍यक्‍ति की आजादी का विशेषाधिकार पत्रकारों के पास कभी नहीं रहा लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि उन्‍हें आम आदमी जितनी आजादी भी हासिल न हो।

शिवसेना के प्रवक्‍ता संजय राउत भले ही यह कहें कि अर्नब गोस्वामी के ख़िलाफ़ की गई कार्यवाही का महाराष्ट्र सरकार से कोई संबंध नहीं है किंतु उनके कथन की ध्‍वनि ही इस बात की पुष्‍टि करती है कि सारा संबंध महाराष्‍ट्र सरकार से हो न हो, ठाकरे परिवार से जरूर है।

बाला साहब ठाकरे के सिद्धांतों को तिलांजलि देकर सत्ता पर काबिज होने की भूख उद्धव ठाकरे ने येन-केन-प्रकारेण भले ही पूरी कर ली परंतु वो अपने उन मकसदों में ज्‍यादा लंबे समय तक कामयाब शायद ही हो सकें जिन्‍हें पाले बैठे हैं।

सत्ता की उलटबांसियों का खेल कब उन्‍हें फिर ‘मातो श्री’ तक ला पटके, कोई नहीं बता सकता। तब यही पुलिस उनके गिरेबां पर हाथ डालने से नहीं हिचकेगी क्‍योंकि पुलिस की किस्‍मत में सत्ताधीशों के हाथ की कठपुतली बनकर रहना लिखा है। आज डोर उद्धव के हाथ में है तो वो उसके इशारों पर नाच रही है, कल किसी और के हाथ में होगी तो उसके हाथ ठाकरे परिवार के कुर्तों का कॉलर नाप रहे होंगे क्‍योंकि खाकी की यही खासियत है।

हां, इतना जरूर है कि खांचों में बंटे मीडियार्मियों के लिए भी यह आत्‍मावलोकन और आत्‍मचिंतन का समय है, चेतने का समय है क्‍योंकि यदि समय रहते नहीं चेते तो आज अर्नब की गर्दन तक पहुंचने वाले किसी एक राजनेता के हाथ कल किसी दूसरे पत्रकार की गर्दन तक भी पहुंच सकते हैं। व्‍यावसायिक प्रतिस्‍पर्धा अपनी जगह परंतु पेशेगत नीति और नैतिकता को त्‍यागने के दुष्‍परिणाम उम्मीद से अधिक विनाशकारी साबित हो सकते हैं।

-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

साभार -legend news