क्यो न इस बार दीपावली पर कुछ बात घर की लक्ष्मी पर ही हो जाए…

अन्तर्द्वन्द
इसमें उसकी रज़ामन्दी नही थी फ़िर भी मैंने उसे छू लिया! क्यों, क्योंकि मुझे स्वयं ही आत्मबोध हुआ कि वो तैयार है, क्यों बन गए हम इस तरह.  शायद हमारे विचारों के बीज ही इस तरह के बोए गए हैं. पढ़िए इस चिंतन को.
पुरुषवादी समाज में जन्म ले हमारे विचार भी उसी तरह के बन गए, पर इस असमानता से अब मेरा मन उचटने लगा है. जाति,धर्म के रूप में घर के बाहर बंटना शुरू हुआ समाज घर के अंदर पुरुष-महिलाओं के बीच विभाजित हो जाता है.
घर के मर्दों को मां,पत्नी,बेटी,बहन,बहुओं के घर में होने पर खुद की खाना खाई हुई थाली भारी लगती है, भारतीय समाज की चादर पर ऐसे बहुत से छेद हैं, जिनके आर-पार देखना बहुत जरूरी है.
एक घटना जहां से मैं हिल गया
 
विनोबा, विमला ताई, सुन्दरलाल बहुगुणा जैसों का सानिध्य पाए अनिरुद्ध जडेजा से अल्मोड़ा में जब मेरी पहली मुलाकात हुई थी तब घर में वह अकेले थे, पुरूषप्रधान समाज में जब दो पुरुष साथ भोजन प्राप्त करते हैं तो अक्सर खुद ही अपने बर्तन धोते हैं.
हमारी दूसरी मुलाकात के दौरान रात्रि भोजन अनिरुद्ध की पत्नी और बेटी के साथ किया गया था, बर्तन धोने की बारी आई तो मेरे हाथ खुद के खाए बर्तन धोने से दो बार रुके और मेरे अंदर का पौरुष बाहर निकलने लगा था. अंत में वो बर्तन मैंने घर की महिलाओं के भरोसे छोड़ दिए.
 रह-रह कर मुझे वह बात याद आती है. मेरे मन में तब तरह-तरह के विचार दौड़ रहे थे, क्या मुझे यह बर्तन धोने चाहिए थे, क्या सर्वोदय से जुड़े लोग अपने बर्तन हमेशा खुद ही धोते होंगे, क्या मुझे पुरुष होने का घमंड रहा है, स्वयं महात्मा गांधी जब ऐसी स्थिति में होते होंगे तब वो क्या करते होंगे!
पुरुषवादी समाज 
 
समाज का तानाबाना ही कुछ इस तरह बुन दिया गया है कि पुरुषों को अधिकतर जगह वरीयता दी जाती है.
हमारे पुरुषप्रधान समाज में अभी कुछ दिन पहले करवाचौथ मनाया गया, महिलाएं अपने पतियों की लंबी उम्र के लिए करवाचौथ व्रत रखती हैं और रात होने पर अपने पति के हाथ से पानी पी अपना व्रत तोड़ती हैं. इस समाज में पुरुष द्वारा अपनी पत्नियों की लंबी उम्र की कामना के लिए शायद ही इस तरह का कोई व्रत रखा जाता है.
पूरी दुनिया में जितने भी धर्मों को इंसान मानता है, उसमें से अधिकतर धर्मों के ग्रन्थों में महिलाओं को उचित स्थान तो दिया गया है पर उन ग्रन्थों में लिखी परिभाषा धर्म के ठेकेदारों द्वारा अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए अलग-अलग तरह से परिभाषित कर दी गई.
कहीं महिलाओं को लिबास में जकड़ दिया गया तो कहीं महिलाओं को अछूत मान लिया गया और जो खुद को ऊंची सोच का बताते थे उस समाज ने महिलाओं को गुड़िया की तरह सजा-धजा घर की चौखट पर जिस्म की नुमाइश करने खड़ा कर दिया. 
सत्ता में महिलाओं की भागीदारी ने कितनी स्थिति बदली!
कहा जाता है कि सत्ता में महिलाओं की भागीदारी देश में महिलाओं की स्थिति बदल सकती है. इंदिरा गांधी देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनी थी उसके सालों बाद भी आज तक महिलाओं की स्थिति में कोई खास सुधार नही देखा गया है, पुरुष क्या महिलाएं भी इस पुरुषवादी समाज को बनाए रखने में बराबर की जिम्मेदार है. एक महिला बहु से सास बन जाती है तो वह यही चाहती है कि उसकी बहु लड़का जने.
सत्ता के शीर्ष पद में से एक राज्यपाल तक पहुंची उत्तराखंड की पूर्व राज्यपाल बेबी रानी मौर्य के एक बयान से हम समझ सकते हैं कि सत्ता के शीर्ष पद की महिलाएं भी लड़कों को नसीहत देने से बेहतर लड़कियों को पर्दे में छुपाना बेहतर समझती हैं.
एक जगह उन्होंने कहा था कि थाने में महिला अधिकारी और सब इंस्पेक्टर जरूर बैठती हैं, लेकिन एक बात मैं जरूर कहूंगी कि 5 बजे के बाद और अंधेरा होने के बाद थाने कभी मत जाना. फिर अगले दिन सुबह जाना और अगर जरूरी हो तो अपने साथ अपने भाई, पति या पिता को लेकर ही थाने जाना. 
तो क्या पूर्व राज्यपाल के पास थाने के पुरुष कर्मचारियों के लिए कोई सुझाव नही था?
भारत में अब भी महिलाओं की बुरी स्थिति
 
अब भी बाल विवाह-
एबीपी न्यूज़ की एक ख़बर के अनुसार केरल सरकार की रिपोर्ट में कड़वा सच सामने आया है,
4.37 फीसदी मां बनने वाली महिलाएं 2019 के दौरान 15-19 की आयु ग्रप में शामिल थीं. 19 वर्ष तक उनमें से कुछ ने या तो दूसरे बच्चे को जन्म दिया या तीसरी संतान को पैदा किया. राज्य सरकार की रिपोर्ट महिला सशक्तिकरण और शिक्षा के बावजूद बाल विवाह की घटना के स्पष्ट संकेत को दर्शाती है. आर्थिक और सांख्यिकी विभाग ने सितंबर में रिपोर्ट जारी की थी.
महिलाओं के प्रति अपराध-
महिलाओं के प्रति अपराध दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2020 में महिलाओं के प्रति हुए अपराधों में कमी तो आई है पर साइबर क्राइम में बढ़ोत्तरी हुई है, कोरोना में लगे लॉकडाउन को इसका कारण माना जा सकता है.
सिंगल मदर की समस्या-
भारत में तलाक या पति की मृत्यु के बाद अकेले रहने वाली महिलाओं के सामने बच्चें होने पर बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है. यदि ऐसी महिलाएं किसी रोज़गार से जुड़ी होती हैं तो उनके कार्यक्षेत्र में साथी कर्मचारियों का व्यवहार उनके साथ ठीक नही रहता और जो महिलाएं किसी रोज़गार से नही जुड़ी होती उनके सामने तो और भी बुरी स्थिति रहती है, वह महिलाएं अपने और बच्चे के पालन-पोषण के लिए किसी दूसरे पुरुष पर निर्भर हो जाती हैं और घरेलू हिंसा का शिकार बनती हैं. भारत में सिंगल मदर के लिए किसी प्रकार की बड़ी योजना का न होना इन महिलाओं के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है.
विधवा पुर्नविवाह-
सन् 1857 की क्रांति तो सबको याद होगी पर गुलाम भारत में सन् 1856 में भी एक क्रांति हुई थी जिसे भारत का समाज शायद याद नही रखना चाहता. श्री ईश्वरचन्द्र विद्यागर के प्रयत्नों से पास हुए सन् 1856 के हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम से विधवा विवाह को वैध घोषित कर दिया गया था पर दुख की बात यह है कि इस विषय में पूरे भारतवर्ष में ना तब बात की गई थी ना अब की जाती है. आज भारत में ऐसी लाखों विधवा महिलाएं हैं जिनके पुनर्विवाह में सामाजिक सोच बाधा बनी हुई है.
वह महिलाएं सामाजिक रूप से तिरस्कृत रहते हुए एकांकी जीवन जीने पर मजबूर हैं.
 महिला सशक्तिकरण के उपाय..
 
लड़कियां तो काम के लिए बनी है
महिला कमज़ोर होती हैं, महिला काम के लिए ही बनी हैं यह विचार हम भारतीयों के मन में बचपन से ठूस दिए जाते हैं. छोटे भाई-बहनों के बीच लड़कों से काम नही कराया जाता और लड़कियों को काम सिखाया जाता है. थोड़ा बड़ा होने पर माता-पिता अपनी लड़कियों को सिखाने लगते हैं कि भाई के लिए खाना लगा, उसको पानी पिला. बस यही शुरुआत होती है जब लड़का पौरुष को श्रेष्ठ मानने लगता है, उसका मन मान लेता है कि लड़कियां लड़कों से कमज़ोर होती हैं और यही धारणा वह घर के बाहर की महिलाओं पर भी बना लेता है.
उसके द्वारा स्त्री को खुद से कमज़ोर मान लिया जाता है, वह उन पर अपराध करने से हिचकता नही है.
 प्राथमिक पाठशाला से ही अगर लड़के-लड़की के बीच भेद को न सिखाया जाए तो स्त्री-पुरुष को बराबरी प्रदान करने वाले समाज की नींव रखी जा सकती है.
 
लड़ना सिखाना
महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में हमने क्रूरता की हदें पार होते देखी है. दामिनी वाली घटना तो बड़ी बन गई पर हर लड़की की किस्मत ऐसी नही की उसे न्याय मिल ही जाए. कोर्ट का रुख करने वाली लड़कियों के प्रति अपराधों में भी इज़ाफ़ा हुआ है तो देहरादून में लड़की का गला रेत छात्र कोर्ट पहुंच कर कहता है कि मैंने मर्डर कर दिया.
कुदरत ने महिलाओं को नाखून दिए हैं उसका प्रयोग करते महिलाओं को गुथमगुथा की लड़ाई लड़ने के पैंतरे आने चाहिए. लड़कियों को बचपन से कृपाण धारण करना सीखना चाहिए, यह उनकी आत्मरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है.
महिलाओं को मानसिक रूप से भी मज़बूत होना चाहिए, भावुक हो वो किसी के सामने रो देती हैं तो इसे उनकी कमज़ोरी मान लिया जाता है और यह कुदरत का नियम रहा है कि कमज़ोर का शोषण किया जाता है.
 
●सौंदर्यता का प्रदर्शन पर सम्भल कर
बॉलीवुड की अधिकतर फिल्में हों या टेलीविज़न पर आने वाले विज्ञापन, महिलाओं को हमेशा एक उत्पाद की तरह पेश किया गया है. उनके गोरे-काले रंग पर विज्ञापन बनाया जाता है, उनकी लम्बाई पर गाने लिखे जाते हैं पर दुख की बात यह है कि एक महिला ही कुछ पैसों के लिए उन विज्ञापन-फिल्मों में काम करती हैं.
हां महिलाओं की शारीरिक रचना इस प्रकार की है वह श्रृंगार कर सुंदर लगती हैं पर उन्हें ब्यूटी प्रोडक्ट की छवि से बाहर आना होगा उन्हें अपनी सुंदरता नही, अपनी बुद्धिमत्ता से समाज में छाने की तैयारी करनी होगी, बहुत सी महिलाएं अपने-अपने क्षेत्र में पुरुषों से आगे हो नाम कमा भी रही हैं.
कपड़ों के साइज़ को लेकर विवाद रहता है तो इसका उत्तर मैं पहले ही दे चुका हूं, यदि पुरुष समान सोच वाला बन जाएगा तो कपड़ों का साइज महत्व नही रखेगा. कौन क्या पहनता है यह अपने आराम को देखते हुए निजी फ़ैसला होना चाहिए. पोर्नोग्राफी भी एक महत्त्वपूर्ण विषय है, भारत सरकार समय-समय पर इनमें प्रतिबंध लगाने के असफ़ल प्रयास करती रही है. पोर्न का महत्व सीखने तक होना चाहिए, यदि सेक्स एजुकेशन को भी समान रूप से वरीयता दी जाएगी तो यह रहस्य नही रहेगा.
तलाक से डरना
भारतीय समाज में तलाक को एक बुरा शब्द माना गया है, तलाकशुदा महिलाओं को सामाजिक रूप से असफ़ल मान लिया जाता है.
तलाक होने के डर से बहुत सी महिलाएं अपनी शादी से खुश न रहते हुए भी रिश्ता निभाती जाती हैं और अपने जीवन की अहमियत भूल जाती हैं.
 क्रिकेटर शिखर धवन से तलाक होने के बाद उनकी पूर्व पत्नी आयशा ने इंस्टाग्राम में तलाक को लेकर एक पोस्ट की थी, जिसे पढ़ना जरूर चाहिए.
विधवाओं के प्रति विचार
 भारतीय युवाओं के कपड़े तो पश्चिमी हो गए पर उनके विचार अब भी शताब्दियों पीछे चल रहे हैं, विधवाओं से विवाह पर भारत में अब भी एक मानसिक बाधा बनी हुई है.
विधवा महिला यदि समझदार, शिक्षित है तो यह कहीं नही लिखा है कि वह अच्छी जीवनसंगिनी नही बन सकती. यदि हम ऐसी विधवा महिला की बात करें जिसकी कोई संतान है तो परिवार नियोजन के इस जमाने में वह महिला विवाह के लिये सबसे उपयुक्त है.
क्या स्थिति ऐसी ही रहेगी
 
कहने को हम महिलाओं को घर की लक्ष्मी पदवी से नवाज़ते हैं पर हमने महिलाओं को सुरक्षा देने एवं उनके लिए बेहतर भविष्य की दुनिया बनाने के लिए क्या कभी माहौल बनाया! यहां हम मतलब पुरुषों से बिल्कुल नही है, हम समाज है जिसमें सबकी बराबर की भागीदारी है.
आज ‘मुखजात्रा’ किताब के लेखक सुनील कैंथोला से उनके ऑफिस में मुलाकात हुई. वहां कार्यरत एक लड़की ने मुझे चाय पिलाई, चाय ख़त्म होने के बाद मैं खाली कप पकड़े फिर से कुछ सवालों में उलझा हुआ था. यह वही सवाल थे जो गांधीवादी अनिरुद्ध जडेजा के घर मुझे परेशान कर रहे थे.
किसी महिला को चाय का कप उठाने देना शायद बड़ी बात न मानी जाए पर शुरुआत यहीं से होती है. महिलाओं के लिए बेहतर माहौल वाला समाज बनाने के बाद ही हम सभी को कह सकते हैं, शुभ दीपावली.
हिमांशु जोशी,
    उत्तराखंड.