असम से लेकर इंडोनेशिया तक हाथियों के मसीहा हैं ये एलिफैंट डॉक्टर

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भारत के वन्यजीव समुदाय में ‘एलिफैंट डॉक्टर’ के नाम से मशहूर 59 साल के डॉक्टर कुशल कुंवर शर्मा जब हाथियों के बारे में बात करते है तो उनका चेहरा खुशी से खिल उठता है. वे बेहद जोश के साथ कहते है, “मैं हाथियों के साथ ही खुश रहता हूं.”

अपनी जिंदगी के 35 साल हाथियों की देखभाल और इलाज करने में गुज़ार चुके डॉक्टर शर्मा ने असम और पूर्वोत्तर राज्यों के जंगलों से लेकर इंडोनेशिया के जंगल तक हजारों हाथियों की जान बचाई है.

हाथियों के साथ उनके जुड़ाव की कहानी इतनी लोकप्रिय हो चुकी है कि असम तथा भारत के कई राज्यों में उन्हें लोग ‘एलिफैंट डॉक्टर’ के नाम से पहचानने लगे है.

अपनी जान की परवाह किए बग़ैर हाथियों के इलाज के लिए जंगलों में घूमने वाले डॉक्टर शर्मा ने कहा, “मैंने हाथियों के साथ अपने जीवन का जितना समय गुजारा है उतना समय मैं अपने परिवार को नहीं दे पाया हूं. खासकर असम के हाथियों से मुझे बहुत प्यार है.”

“मैं यहां के हाथियों की गतिविधियों से उनकी भाषा समझ लेता हूं. उनसे संकेत में बात करता हूं. उनके लिए खाने का सामान लेकर आता हूं. यहां के अधिकतर हाथी अब मुझे पहचानते है.”

मुश्किल में फंसे जानवरों की मदद

हाथियों के प्रति उनके प्यार और सेवा को देखते हुए इस साल भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा है. वे देश के पहले पशुचिकित्सक हैं, जिन्हें पद्मश्री मिला है. डॉक्टर शर्मा के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दफ्तर ने पद्मश्री सम्मान के लिए उनका नामांकन भेजा था.

वो बताते है, “मुझे कई महीनों तक इस बात के बारे में पता ही नहीं था कि पद्मश्री के लिए मेरा नाम किसने नामांकित किया था. काफी दिनों बाद भारत सरकार के एक अधिकारी ने बातचीत के दौरान बताया कि मेरा नामांकन पीएमओ से भेजा गया था.”

बाढ़ के दौरान ख़ासकर काज़ीरंगा नेशनल पार्क में हाथी समेत कई दुर्लभ प्रजाति के जानवरों को अपनी जान गंवानी पड़ती है. गुवाहाटी स्थित कॉलेज ऑफ वेटरीनरी साइंस के सर्जरी और रेडियोलॉजी विभाग में पढ़ाने वाले प्रोफेसर डॉक्टर शर्मा की ज़रूरत उस समय सबसे ज़्यादा होती है.

फिर चाहे उन्हें कोई आधिकारिक तौर पर मदद के लिए बुलाए या नहीं, वे खुद ही मदद के लिए पहुंच जाते है. बीते कई सालों से उन्होंने सैकड़ों वन्य जीवों की जान बचाई है. हाथियों के साथ अपने जीवन के कई भावुक किस्सों का ज़िक्र करते हुए डॉ. शर्मा कहते हैं कि जब किसी हाथी की मौत होती है तो वो बैचेनी महसूस करते हैं.

वो कहते हैं, “कई साल पहले बाढ़ के कारण एक हथिनी की मौत हो गई थी. जब मैं वहां पहुंचा तो मैंने देखा कि उसका चार महीने का बच्चा मरी हुई हथिनी का दूध पीने की कोशिश कर रहा था. मेरे लिए वह बेहद दुखदायी पल था. जीवन में ऐसी कई घटनाएं है जिन्हें मैं भूल नहीं पाया हूं.”

बाढ़ के दौरान काज़ीरंगा नेशनल पार्क में काम करने के अनुभव साझा करते हुए डॉ. शर्मा कहते हैं, “बाढ़ के दौरान काज़ीरंगा नेशनल पार्क में जानवरों को काफ़ी नुकसान पहुँचता है. कई जानवर मारे जाते हैं. कई बार तो बाढ़ के पानी में हाथी तक बह जाते हैं. बाढ़ के समय कई हाथी के बच्चे अपनी मां से बिछड़ जाते है. ऐसे हालात में उनको देखभाल और सहारे की ज़रूरत होती है इसलिए मैं बाढ़ के समय जानवरों की मदद करने वहां जाता हूं.”

“मेरी कोई आधिकारिक ड्यूटी नहीं लगती लेकिन जब बड़ी बाढ़ आती है तो मैं खुद वहां जाता हूं ताकि ज़्यादा से ज़्यादा जानवरों की जान बचा सकूं. काज़ीरंगा में सेंटर फ़ॉर वाइल्ड लाइफ़ रिहैबिलिटेशन एंड कंज़र्वेशन का बचाव केंद्र है. बाढ़ में ज़ख्मी हुए जानवरों को वहां लाया जाता है और मैं वहां की टीम के साथ मिल कर घायल जानवरों का इलाज करता हूं.”

हाथी देते हैं बाढ़ का इशारा’

हाथियों के बारे में जानकारी देते हुए डॉ. शर्मा कहते है, “हाथी बुद्धिमान जानवर होता है. क्योंकि बाढ़ आने का अनुमान उसे छह-सात दिन पहले ही हो जाता है.

इसलिए ज़्यादातर हाथी काज़ीरंगा के जंगल से निकल कर ऊंची पहाड़ी की तरफ चले जाते हैं. यह बात कई वन्यजीव एक्सपर्ट को भी पता हैं. वन अधिकारियों को भी हाथियों की गतिविधियों से पता चलता है कि बाढ़ आने वाली है.”

कई साल पहले आई एक बाढ़ का ज़िक्र करते हुए डॉ. शर्मा बताते हैं, “बाढ़ से पहले काज़ीरंगा के लगभग सारे हाथी कार्बी-आंग्लोंग के रास्ते नागालैंड होते हुए म्यांमार तक चले जाते थे और जब बाढ़ का पानी कम होता तो वे वापस लौट आते थे.”

“लेकिन वापस लौटने के दौरान उनके साथ कई हादसे होते थे. नागालैंड में पहाड़ी जनजाति के लोग हाथियों को मार कर खा जाते थे. इन घटनाओं के पीछे हाथी दाँत की तस्करी भी एक कारण था. इसलिए जब हाथी वापस काज़ीरंगा लौटते थे तो उनकी संख्या घट जाती थी. अब हाथियों ने इस बात को समझ लिया है और बाढ़ के दौरान काज़ीरंगा से बाहर जाना छोड़ दिया है.”

हाथियों से डॉ. शर्मा का लगाव इस बात से समझा जा सकता है कि वे असम के अलावा गुजरात, राजस्थान जैसे कई राज्यों में हाथियों का इलाज करने जाते है. इसके अलावा उन्होंने नेपाल, श्रीलंका और इंडोनेशिया के जंगल से पकड़े गए सैकड़ों हाथियों का इलाज किया है.

डॉ. शर्मा ने हाथियों में एनेस्थीसिया पर पीएचडी की है. वो बताते हैं, “मैंने इंडोनेशिया में कई महीनों तक रहकर हाथियों के लिए काम किया है. दरअसल इंडोनेशिया में नब्बे के दशक के बाद जंगली हाथियों को पकड़ने का काम शुरू हुआ था और उन हाथियों को सुमात्रा में बनाए गए पांच एलिफैंट ट्रेनिंग कैंप में रखा जाता है.”

“वहां बहुत हाथी मर रहे थे और सैकड़ों गंभीर रूप से घायल थे. इसलिए उन लोगों ने मुझे बुलाया था. उस समय वहां ट्रेनिंग और दवाइयों की अच्छी व्यवस्था नहीं थी और न ही उनके पास अच्छे महावत थे. असम के महावत हाथियों को बहुत अच्छी तरह हैंडल करते हैं इसलिए मैं यहां से महावत और दवाइयाँ लेकर गया था.”
“इंडोनेशियाई हाथियों के लिए आज भी वहां के अधिकारी मेरे बनाए हुए कैप्टिव एलीफैंट मैनेजमेंट एंड हैल्थकैयर प्लान पर ही काम कर रहें है.”

बचपन से था लखी हथिनी से प्यार

डॉ. शर्मा की हाथी से प्रेम कहानी बचपन में ही शुरू हो गई थी. असम के नलबाड़ी जिले के एक छोटे से सीमावर्ती गांव बरमा में डॉ. शर्मा का बचपन बीता था.
उन दिनों को याद करते वह कहते हैं, “हमारे घर में उस दौरान लखी नाम की एक हथिनी हुआ करती थी और मेरा अधिकतर समय उसके आसपास खेलने में गुजरा था. वहीं से मेरे मन में हाथियों के लिए प्यार की शुरूआत हुई.”

पूर्वोत्तर राज्यों के घने जंगलों में हाथियों का इलाज करने के लिए अब तक क़रीब तीन लाख किलोमीटर की दूरी तय कर चुके डॉ. शर्मा 20 से अधिक बार अपनी जान जोखिम में डाल चुके है. पिछले 15 सालों से बिना कोई साप्तहिक छुट्टी लिए डॉ. शर्मा लगभग 10,000 हाथियों का इलाज करने का रिकॉर्ड कायम कर चुके है. एक अनुमान के अनुसार वे साल में कम से कम 700 जंगली और पागल हुए हाथियों का इलाज करते है.

बांग्लादेश के सीमावर्ती मेघालय में एक पागल हाथी को काबू करते समय डॉ. शर्मा की जान जोखिम में पड़ गई थी.

वह बताते हैं, “पागल हाथियों के साथ काम करना बहुत जोखिम भरा होता है. कई बार सोचता हूं तो लगता है मैं जिंदा कैसे बच गया. मेघालय के जंगल में जिस पागल हाथी को पकड़ना था वो सामने से आक्रमण करने का प्रयास कर रहा था. स्थिति काफी भयानक थी.”

“मुझे हाथी को बेहोश करने के लिए पूरी रात पेड़ पर गुजारनी पड़ी. दरअसल, हाथी के शरीर में हार्मोन टेस्टोस्टेरोन बढ़ने की वजह से वह पागल हो जाता है. पागल हाथियों को पकड़ने के लिए हम सीरिंज में दवा डालकर उसे बंदूक से चलाते हैं.”

“सीरिंज लगने के आधे घंटे के भीतर हाथी बेहोश हो जाता है. फिर हाथी के चारों पैर बांधकर जंगल में उसका इलाज करते हैं. अब तक इस तरह के 139 हाथियों का इलाज कर चुका हूं.”

केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय के “प्रोजेक्ट हाथी” की एक संचालन समिति के सदस्य नियुक्त किए गए डॉ. शर्मा की बेटी भी अब इस काम में उनकी मदद कर रही है.

डॉ. शर्मा कहते हैं, “मैं चाहता हूं कि मेरे बाद हाथियों के इलाज की जिम्मेदारी मेरी बेटी संभाले. वह मेरे साथ हाथियों का इलाज करने जंगल में जाती है.

पशुचिकित्सा की पढ़ाई करने के बाद वह अब जंगली जानवरों में अल्ट्रासाउंड ग्राफ़ के उपयोग पर पीएचडी कर रही है.”

भारत में हाथियों की आबादी की बात करें तो अगस्‍त 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हाथियों की कुल संख्या 27,312 दर्ज की गई थी जबकि असम में 5,719 हाथी है.

-BBC